Blurb:
उन सात सालों मे जब, तेंदुलकर भगवान बना, भारत ने उदारीकरण की राह पकड़ी, केबल टीवी का जन्म हुआ, बाबरी मस्जिद ढही, राजीव गाँधी की हत्या हुई, दिव्या भारती की मृत्यु हुई, हर्षद मेहता ने घोटाला किया| उन सात सालों में, ग्यारह से अठारह साल की उम्र के बच्चे क्या सोचते थे? 'हॉफ टिकट घोड़े' उन्हीं सात सालों की कहानी है। यह इतनी दिलचस्प हो सकती है, बिल्कुल अहसास नहीं था। इरादा था उस उम्र के बाल मनोविज्ञान को पकड़ना। ये किया तो क्यों किया, वो कहा तो क्यों कहा। बहुत सारे विवाद है, झड़पें हैं। डर है कि मसले जो अब सुलझ चुके हैं, उन्हें कहीं मैं फिर से उलझा न लूँ। स्वार्थ है, पार्थ! निरा स्वार्थ|
My
review:
A
story filled with nostalgia.
It
takes the reader to the life lived in a hostel.
All
in all a great story.
And
a must read for all the ones who’ve lived or are currently living in a hostel.
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